विशेष रुप से प्रदर्शित पोस्ट

मुहब्बत का अंज़ाम

 बेताबी बेचैनी को अपनाना  भीड़ में अकेला होना  अकेले में आँसू पीना  प्यार की गीतों में प्यारी नजर आना  निरुत्साह निराश में डुबे रहना  लड़कियों के प्रति नफ़रत होना  जोश मस्ती में मन नहीं लगना  आदि सभी लक्षण आ जाते हैं  अगर मुहब्बत में मन मूर्जाने तो  अतएव कम दिन के  जिंदगी को और जवानी को  प्रेम नामक अभिनय के खातिर  अपना न होने पराया के लिए  त्याग देना महान पाप है  इससे अच्छा  प्रेमनगर के द्वार को बंद करके  स्वर्गनगर के द्वार को  खोलना है उचित।।

क्यों थोपते हैं दक्षिण भारत के राज्यों पर हिन्दी ।

 

दक्षिण भारत के राज्यों पर हिन्दी क्यों थोपते हैं।


भारत, दुनिया का सबसे विभिन्न राष्ट्र है। पोशाक, भाषा शैली, अलग अलग सांस्कृतिक पहचान का सबसे जटिल मिश्रण में से एक माना जाता है। इस तरह के करीबी और सही तरीके से एक साथ बुनाई गई विभिन्न संस्कृतियों की बड़ी संख्या, भारत की विविधता को दुनिया के चमत्कारों में से एक बनाती है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।विविधता में एकता ही भारत की विशेषता है, फिर हम क्यों अपनी विविधता वाली संस्कृति से दूर होने का उपक्रम कर रहे हैं। हिन्दी की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता को हम भले ही कम आंक रहे हैं, लेकिन यह सत्य है कि इसका हमें गौरव होना चाहिए। भारत में हिन्दी की संवैधानिक स्वीकार्यता रही है। कई संस्थाएँ हिन्दी को राजभाषा के रुप में प्रचारित करती हैं तो कई मातृभाषा के रुप में। दक्षिण के राज्यों में भी अब हिन्दी बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी लगातार अपना विस्तार कर रही है।

 लेकिन दुर्भाग्य से उत्तर भारत के लोग राष्ट्रभाषा नाम पर इस "अनेकता में एकता" नामक विशेषता को तोड़ना चाहते हैं। न जाने क्यों दक्षिण भारत के क्षेत्रीय भाषाओं को अपने पहचान बनाकर विकास होने नहीं देते हैं। 

 प्राय: तमिल ,तेलुगू , मलयालम और कन्नड़ भाषाओं के विरोध में स्वर सुनाई देते रहे हैं। हाल ही में इस प्रकार का वातावरण बनाने का फिर से प्रयास किया जा रहा है। वजह यह कि वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अगुआई वाली समिति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारुप केन्द्र सरकार को सौंपा है, जिसमें भारत के दक्षिण प्रांतों में तीन भाषा प्रणाली को लागू करने की बात प्रस्तावित है। 

इसमें राष्ट्रभाषा के नाम से दक्षिण भारत के लोगों पर राज करने की कोशिश किया जा रहा है । अतः भारत के 29 राज्यों में से 9 राज्यों में बोलने वाली जो संभावना बहुत कम है उस भाषा को ही राष्ट्रभाषा बनाने की उथल पुथल हो रहें हैं।

यह सही है कि दक्षिण के राज्यों में हिन्दी के विरोध में स्वर मुखरित किए जाते रहे हैं। क्योंकि केंद्र सरकार ने तीन भाषा प्रणाली को लेकर उठ रही आशंकाओं को पूरी तरह से खारिज नहीं किया है।जैसे उस तीन भाषा प्रणाली में उत्तर भारत में तीन भाषाओं में एक दक्षिण भारत की भाषा ही होनी चाहिए माने विषय पर ध्यान नहीं दिया गया है । दक्षिण भारत के लोग एक नया भाषा सीखने , पढ़ने तो उत्तर भारत के लोग क्यों नहीं पढ़ना, सीखना चाहिए। दक्षिण भारत के भाषाओं में चाहे तमिल हो ,कन्नड़ हो, मलयालम हो या तेलुगु हो। लेकिन उत्तर भारत के लोग हिंदी भाषा के मूल भाषा संस्कृत को पढ़कर बिना मेहनत से आगे बढ़ रहे हैं। मगर दक्षिण भारत में नया भाषा को सिखाने के लिए क्यों इतना हलचल मचाना है । 

दक्षिण भारत राज्यों के विरोध का सबसे बड़ा सच यह भी है कि इस विरोध में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक कारण ही दिखाई देता है। यानी हिन्दी के विरोध में राजनीतिक आंदोलन किए जाते हैं, जबकि जनता की भागीदारी बराबर ही होती है। इसे हिन्दी का सिर्फ राजनीतिक विरोध कहा जाए तो समुचित नहीं होगा। हिन्दी के समर्थन से दक्षिण भारत के लोगों को लाभ की बात तो समझ में आती है। लेकिन इससे यहाँ के सभी लोगों को बड़ा नुकसान होता है। हिन्दी मातृभाषा नहीं होने के कारण जल्दी नहीं पढ-लिख-सीख पाएंगे। अतः हिंदी भाषा की संबंधित नौकरियाँ सिर्फ उत्तर भारत के लोगों को ही मिलेंगी। फलस्वरूप यहाँ के अधिकांश युवा रोजी-रोटी की तलाश अपने राज्य में भी खोकर देश के बड़े शहर मुंबई, दिल्ली, कोलकाता या अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में भी नहीं खोएंगे । फिर उनके अपने राज्य में रोजगार या नौकरी की बहुत गुंजाइश नहीं बची है। नतीजतन वहाँ बेरोजगारी बड़ी समस्या है।

हिंदी भाषा सीखने में बोलना, पढ़ना, लिखना एवं सुनना संबंधित कितने समस्याएँ सामना करना पड़ता है यह तो भगवान ही जानें क्योंकि इसका मूल कारण लिपि (देवनागरी) अलग है, अर्थबोध अलग है और उच्चारण शैली अलग है । उत्तर भारत के लोग बचपन से वही भाषा को पढ़, लिख, सुन एवं बोलते हुए आ रहे हैं । इसलिए उनको कहीं भी ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है। वे आराम से पढ़ते हैं जल्दी ही देशभर में नौकरी पाते हैं। समय-समय पर ढंग से पेट पूजा करते हैं। किंतु दक्षिण भारत के लोग अपनी मातृभाषा, साहित्य, संस्कृति और सामाजिकता को छोड़कर राजभाषा नाम से हिंदी पढ़ने तो भी पढ़ाई का दूसरा मकसद नौकरी के लिए बहुत कठिनाइयों को सामना करना पड़ता है। अब भी देश के केंद्रीय सरकार कार्यालयों में अधिकतर कर्मचारी एवं अधिकारी लोग उत्तर भारत के राज्यों से ही रहते हैं। 

भारत में जब हिंदी राजभाषा के रूप में घोषित किया गया तब हिंदी को दक्षिण भारत में द्वितीय भाषा के रूप में शिक्षा के क्षेत्रों में शामिल किया गया । हिंदी भाषा के विकास एवं प्रचार के लिए देश में चारों ओर भी विभिन्न केंद्रीय विद्यालयों को , विश्वविद्यालयों को और संस्थानों को स्थापना किया गया। उनमें पढ़ने की प्रवेश के लिए आरक्षण के साथ अनुमति भी दिया गया । मगर पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी ढूंढते हुए निकलने तो केंद्रीय सरकार शिक्षा क्षेत्रों में पढ़ाने के लिए हिंदी प्रथम भाषा के रूप में पढ़ना चाहिए था माने नया नियम बताकर आगे बढ़ने से रोकते हैं। और एक बात दक्षिण भारत में विभिन्न धर्म भी स्थित है। इसलिए उत्तर भारत के लोग चाहते हैं कि सभी लोगों को अपने धर्म, संस्कृति, वेश-भूषा, रहन- सहन, खान-पान एवं बोली-भाषा को अपनाना है। तभी तो हम राज कर सकते हैं माने हिंदी-हिंदुत्व की विषयों से राजनीति कर रहे हैं।इसलिए दक्षिण भारत में सरकारों के साथ-साथ जनता भी इस प्रस्ताव को विरोध करते हुए उनके राज्य पर हिन्दी नहीं थोपी जानी चाहिए माने आंदोलन किए और कर रहे हैं। 

यहाँ पर कुछ लोग सवाल किया जा रहा है कि अभी केवल प्रारुप ही आया है तो इसमें थोपने जैसी बात कहाँ से आ गई ? मैं इसके उत्तर में बता रहा हूँ कि प्रारूप एक पौधे के समान है अगर वह हमारे रास्ते के बीच में उगने तो उसे शुरुआत में ही हटाना है नहीं तो, वृक्ष बनकर हमें गलत रास्ता पर जाने की मजबूरी करेगा। इसलिए हम शुरुआत में ही विरोध कर रहे हैं।

तमिलनाडु राज्य के ऊपर हिन्दी भाषा के विरोध के संबंधित बहुत कुछ बोला जाता है। सवाल यह है कि हिन्दी से पुरानी भाषा,सभ्यता, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता में हमारा देश में अग्रणी राज्य है । यहाँ हिन्दी से घृणा नहीं करते हैं ताकि अपने मातृ भाषा के प्रति प्रेम और लगाव अधिक है। इसलिए हिंदी को द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ने की इंकार नहीं किए । परंतु अब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने तो अपने मातृभाषा तमिल लुप्त हो जाएगी माने शंकाओं के कारण विरोध करना पड़ रही हैं आशंकाओं को दूर करके तब प्रस्ताव रखिएगा। नहीं तो हिंदी देश को जोड़ने के जल्दीबाज़ी में तोड़ न जाय।

 जैसा कि डीएमके अध्यक्ष एम. के. स्टालिन जी ने मुस्कुराते हुए कहा था कि अब कस्तूरीरंगन कमिटी ने 'मधुमक्खियों के छत्ते पर पत्थर फेंका है'. अगर हिंदी-हिंदुत्व की राजनीति करने वाले कट्टरपंथियों की चली, तो आगे का सफ़र बेहद ख़ूंरेजी होने वाला है। हम एक बार फिर तमिलनाडु में 1937-40 और 1965 का दौर देख सकते हैं. ये देश को मेरी चेतावनी है।



-रावण.यम डी



















टिप्पणियाँ